क्या सचमुच हार गया कोरोना?

सोमदत्त शास्त्री
आसमान से वायुसेना के हेलिकाप्टर और फाइटर प्लेन फूलों की बारिश कर रहे हैं। शराब की कलारियों में मदिरा प्रेमियों की मदमस्त कतारें जुटने लगी हैं। मंदिर-मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों के बंद कपाट खोलने की तैयारी है। बाजार भले ही सीमित संख्या में लेकिन खुलने जा रहे हैं। ग्रीन-आरेंज जोन में सड़कों पर चहल-पहल के लिए लोग बेताब हैं। कई शहरों से प्रवासी भारतीय मजदूरों के थके-हारे कारवां गुजरते देखे जा सकते हैं, इनमें बच्चे, बूढ़े, गर्भवती स्त्रियां सभी हैं। इन सभी के पास मुफलिसी, भुखमरी और अंतहीन थकान की कहानियों के अलावा साथियों की मौतों की रोंगटे खड़े कर देने वाली दास्तानें भी हैं। सवाल उठता है कि सरकारें क्या बताना चाह रही हैं? वह चालीस दिन पहले सही थीं या आज सही हैं जब 43 हजार लोग संक्रमित हो चुके हैं और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। अप्रैल के अंतिम दिनों तक रोजाना पाए जा रहे संक्रमितों की संख्या दो हजार से कम हुआ करती थी लेकिन अब यह संख्या रोजाना 2700 का आंकड़ा क्रास कर चुकी है।
मध्यप्रदेश में यह सब लिखे जाने तक तीन हजार लोग कोरोना संक्रमित हैं और सरकारी आंकड़े के मुताबिक 156 मौतें हो चुकी हैं। गैर सरकारी सूत्र मौतों की भयावह तस्वीर पेश करते हैं। खासकर भोपाल और इंदौर को लेकर। रिपोर्ट बताती है कि मध्यप्रदेश में मौतें चिंतनीय हद तक बढ़ गई हैं। यहां संक्रमण छुपाने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण जांच और सेंपलिंग में हो रही देरी अस्पतालों में इलाज को लेकर बरती जाने वाली लापरवाही के साथ मिल कर मरीज के लिए प्राण लेवा साबित हो रही है। राज्य के प्रमुख सचिव स्वास्थ्य मो. सुलेमान ने यह स्वीकार किया है कि, यदि मरीज जल्द अस्पताल पहुंचें तो उन्हें बचाया जा सकता है। मो. सुलेमान के मुताबिक राज्य में मरीजों के अस्पताल में रहने का औसत तीन दिन का है। जो भी चालीस दिन के लाकडाउन के बावजूद मृत्युदर के मामले में मध्यप्रदेश नंबर वन पर है। संक्रमण छोटे-छोटे कस्बों और गांवों में पांव पसार रहा है और अब इसने 38 जिलों को अपने चपेट में ले लिया है। व्यवस्थाओं का आलम यह है कि सरकारी स्कूल के शौचालय में मरीज ठहराए जा रहे हैं। तब क्या लाकडाउन से आजादी आत्मघाती कदम नहीं है?